Monday, March 22, 2010

बुरा न मानो भई, बुरा न मानो

आज कल मेरे मन में यही एक बात बार बार आ रही है कि बुरा होता नहीं है, हम उसे बुरा मानते हैं.

लेकिन यह सब पता होने के बावजूद भी हम क्यों फिर अपने ही लोगों की बातों को दिल में लेकर बुरा मान बैठते
हैं, समझ नहीं आता. जीवन में जानना और समझना जितना जरूरी है उससे कहीं ज्यादा जरूरी है कि जो जानते हैं, उसे हम जीवन में उतारें.

अगर हम जो जैसा है उसे वैसा ही मान लें तो शायद हमें फिर किसी बात का बुरा नहीं लगेगा. पर यह हो कैसे? जीवन में इसे उतारें, कैसे? प्रश्न काफी सरल मालूम होतें हैं, परन्तु उनका उत्तर सही मायने में मानने के लिए बड़ा ही कठिन है.

यह कठिनाई आती है मुख्यतः हमारी चाहतों के कारण. क्योंकि हम दूसरों से जो आशाएं रखते हैं और चाहते हैं कि वे उन आशाओं पर खरे उतरें. हमारी यही चाहतें ही हमें हमारे ज्ञान से दूर ले जाकर हमें दूसरों के कृत्यों का या होनी का बुरा लगाती है, जिसके कारण हम या तो दुखी हो जाते हैं या नाराज. और अगर गुस्सा काबू में नहीं किया तो फिर अपने ही लोगों और अपने पर ही ज्यादतियां कर बैठते हैं.

इसलिए यह प्रण एक बार फिर कि सबको स्वीकारें और किसीभी बात या व्यक्ति का बुरा न मानें. 

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