Tuesday, March 2, 2010

अंतर्मन के कोलाहल की आवाज़

एक हाथ की ताली की क्या आवाज़? यह एक 'कोआन' है ज़ेन बौद्धों की. इसका सीधा सादा उत्तर है कि एक हाथ की ताली की वही आवाज़, जो एक हाथ की ताली की आवाज़ होती है.

प्रश्न और उत्तर दोनों ही कुछ जटिल हैं, और जब तक अंतर्मन की गहराइयों में पैठकर मनन न किया जाए तो शायद उन्हें समझ पाना बहुत कठिन हो. तो फिर क्या मानव को अपने ही अंतर्मन का कोलाहल सुनाई पड़ता है? उत्तर फिर सीधा सादा है कि, हाँ. लेकिन अगर विचार किया जाए तो अंतर्मन के कोलाहल की आवाज़ भी तो वही है जो एक हाथ से बजनेवाली ताली की. फिर क्यूँ मनुष्य अंतर्मन के निनाद को साफ सुन सकता है, क्यूँ?

शायद इसका उत्तर है कि इस अंतर्मन के शोर से हमारे स्वयं के कान फटे जातें हैं क्योंकि हम उसे महसूस करतें हैं. यह महसूस करना, यह प्रतीति, यह अनुभव हरेक इंसान को स्वभावगत है चाहे वह निरक्षर, निपट, गंवार, मूढ़ या विक्षिप्त (पागल) ही क्यों न हो.  निष्कर्ष, हमारी आत्मानुभूति मन से ही अधिक जुडी है, इसीलिए यह मनेंद्रिय शेष पाँचों इन्द्रियों से कहीं ज्यादह महत्ता रखती है.

यह मन है अस्थिर, चंचल और तेज गति वाला, इसे वश में करना अत्यंत कठिन है. यह अंतर्मन का  शोर हमारी रातों की नींद उड़ा देता है, हमारी शांति व सुख चुरा लेता है और हम अगर इस कोलाहल को सह नहीं सके तो हमें यह सर्वांग पंगु भी कर सकता है. तो फिर कैसे डालें इसके नथूनों में नकेल? और कौन करे इसे निस्तब्ध? 

मेरी जीवन की सीख बताती है कि आत्मविश्वास से जो आत्मशक्ति जन्मती है, वही ध्यान के उपकरण से इस गतिमान चपल मन को स्थिर कर सही मार्ग पर ला सकती है.     

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