Thursday, March 25, 2010

तुम्हें समर्पित, मेरी प्रिय शुभ्रा

प्रियतम मेरी   
हो तुम कितनी न्यारी,
अनूठी अनोखी अलग मेरी 'धवला'
सबसे निराली और मुझे अत्यधिक प्यारी.

तुम्हारे चित्त की एकाग्र स्थिरता
निखार देती है तुम्हारे मन की सुन्दरता
हमेशा ही मुस्कान बनी रहे अधरों पर
जो खिला देती है तुम्हारे चेहरे की सुन्दरता.

याद हैं मुझे, तुम्हारे सभी समर्पण
जिस पर निछावर है मेरा तन मन
झाँक लो तुम मेरे ह्रदय में समझ दर्पण
पाओगी प्रिये तुम पर है मेरा सर्वस्व अर्पण.
 
चलो चलें फिर जी लें उन्ही क्षणों को
जिनसे बनी थी हमारी पहली 'दिशा'
और जिन पलों ने जिलाया था 'ऋषि' को
पूर्ण होगी उन्हीं से हमारे भवितव्य की आशा.

तुम्हारी ४५वी वर्षगाठ पर हार्दिक बधाइयाँ

Monday, March 22, 2010

बुरा न मानो भई, बुरा न मानो

आज कल मेरे मन में यही एक बात बार बार आ रही है कि बुरा होता नहीं है, हम उसे बुरा मानते हैं.

लेकिन यह सब पता होने के बावजूद भी हम क्यों फिर अपने ही लोगों की बातों को दिल में लेकर बुरा मान बैठते
हैं, समझ नहीं आता. जीवन में जानना और समझना जितना जरूरी है उससे कहीं ज्यादा जरूरी है कि जो जानते हैं, उसे हम जीवन में उतारें.

अगर हम जो जैसा है उसे वैसा ही मान लें तो शायद हमें फिर किसी बात का बुरा नहीं लगेगा. पर यह हो कैसे? जीवन में इसे उतारें, कैसे? प्रश्न काफी सरल मालूम होतें हैं, परन्तु उनका उत्तर सही मायने में मानने के लिए बड़ा ही कठिन है.

यह कठिनाई आती है मुख्यतः हमारी चाहतों के कारण. क्योंकि हम दूसरों से जो आशाएं रखते हैं और चाहते हैं कि वे उन आशाओं पर खरे उतरें. हमारी यही चाहतें ही हमें हमारे ज्ञान से दूर ले जाकर हमें दूसरों के कृत्यों का या होनी का बुरा लगाती है, जिसके कारण हम या तो दुखी हो जाते हैं या नाराज. और अगर गुस्सा काबू में नहीं किया तो फिर अपने ही लोगों और अपने पर ही ज्यादतियां कर बैठते हैं.

इसलिए यह प्रण एक बार फिर कि सबको स्वीकारें और किसीभी बात या व्यक्ति का बुरा न मानें. 

Thursday, March 11, 2010

मन की कोमल भावनाओं का उद्गीत

हमारे मन की कोमल भावनाएं ही प्रेम और राग रंग के स्रोत्र हैं. प्रेम व राग रंग की अभिव्यक्ति माने श्रृंगार. आज इस श्रृंगार रस पर कुछ हो जाए.

मेरी प्रियतमा,
तुम जब हंसती हो तो गुदगुदा जाता है मेरा मन,
तुम जब खिलखिलाती हो तो हर्षोल्लास से भर उठता है मेरा तन,
तुम्हारा इठलाना बढ़ा देता है मेरी धड़कन,
तुम्हारा इतराना  बन जाता है, मेरे अंगों की झनझन.

तुम्हारी ख़ुशी ही है, मुझे मनभावन,
तुम्हारी अठखेलियाँ ही हैं, मेरा नृत्यांगन,
तुम्हारी मुस्कान ही मेरे चित्त को है हर्षाती,
तुम्हारी नटखट नज़र ही, मेरे रोम रोम को है मस्ताती.

इसीलिए प्रिये,
तुम हमेशा ही रहो मुस्कराती,
बन जाए तुम्हारी आदत ही इतराती,
यही है मेरे मन की बाती,
कि  उत्साह और उमंग बने तुम्हारे चिरसाथी 

Tuesday, March 2, 2010

अंतर्मन के कोलाहल की आवाज़

एक हाथ की ताली की क्या आवाज़? यह एक 'कोआन' है ज़ेन बौद्धों की. इसका सीधा सादा उत्तर है कि एक हाथ की ताली की वही आवाज़, जो एक हाथ की ताली की आवाज़ होती है.

प्रश्न और उत्तर दोनों ही कुछ जटिल हैं, और जब तक अंतर्मन की गहराइयों में पैठकर मनन न किया जाए तो शायद उन्हें समझ पाना बहुत कठिन हो. तो फिर क्या मानव को अपने ही अंतर्मन का कोलाहल सुनाई पड़ता है? उत्तर फिर सीधा सादा है कि, हाँ. लेकिन अगर विचार किया जाए तो अंतर्मन के कोलाहल की आवाज़ भी तो वही है जो एक हाथ से बजनेवाली ताली की. फिर क्यूँ मनुष्य अंतर्मन के निनाद को साफ सुन सकता है, क्यूँ?

शायद इसका उत्तर है कि इस अंतर्मन के शोर से हमारे स्वयं के कान फटे जातें हैं क्योंकि हम उसे महसूस करतें हैं. यह महसूस करना, यह प्रतीति, यह अनुभव हरेक इंसान को स्वभावगत है चाहे वह निरक्षर, निपट, गंवार, मूढ़ या विक्षिप्त (पागल) ही क्यों न हो.  निष्कर्ष, हमारी आत्मानुभूति मन से ही अधिक जुडी है, इसीलिए यह मनेंद्रिय शेष पाँचों इन्द्रियों से कहीं ज्यादह महत्ता रखती है.

यह मन है अस्थिर, चंचल और तेज गति वाला, इसे वश में करना अत्यंत कठिन है. यह अंतर्मन का  शोर हमारी रातों की नींद उड़ा देता है, हमारी शांति व सुख चुरा लेता है और हम अगर इस कोलाहल को सह नहीं सके तो हमें यह सर्वांग पंगु भी कर सकता है. तो फिर कैसे डालें इसके नथूनों में नकेल? और कौन करे इसे निस्तब्ध? 

मेरी जीवन की सीख बताती है कि आत्मविश्वास से जो आत्मशक्ति जन्मती है, वही ध्यान के उपकरण से इस गतिमान चपल मन को स्थिर कर सही मार्ग पर ला सकती है.