Friday, March 16, 2012

कौन हूँ मैं?

मैं कौन हूँ? या क्या हूँ? यह प्रश्न अनादि काल से मनुष्य को सताता रहा है, आज मुझे भी. हालांकि इस बारे में काफी पढ़ा है, विचारा है, चर्चाएँ की हैं, किन्तु न जाने फिर भी आजकल इस विषय पर बहुत उलझ रहा हूँ. क्या यह मेरी प्रोढ़ता है अथवा मूढ़ता, पता नहीं.

शायद अपनी जननी की व्याधि व उम्रजन्य व्यथाओं को स्वयं सहन कर सकने की असमर्थता हो, या महात्मा बुद्ध की तरह वृध्दावस्था और व्याधिग्रस्त पीडाओं को देख जीवन की यथार्थता का भान हो रहा हो.

क्या जीवन के कोई मायने नहीं? क्या जीव की कोई वस्तुता नहीं? क्या सही में हम अनादि अनंत से भटकते हुए एक चैतन्य हैं, जिसके कोई रूप, रस, गंध नहीं? क्या वस्तुतः 'हम' निराकार, निर्ग्रन्थ, निर्गुण, अरूपी, आत्मिक सत्य हैं, जिसका इस सांसारिकता से कोई भी वास्ता नहीं?

यह सभी प्रश्न अंतर्मन को झकझोर रहें हैं. मुझे अपने आप में लीन होने के लिए प्रेरित कर रहें हैं. संसार से विराग की ओर ले जा रहें हैं. किसे चुनूं? कैसे चुनूं? क्या निश्चय का मार्ग व्यवहार पर हावी हो जाए? क्या सांसारिक उत्तरदायित्व पूरे हो चुके? अनेकानेक प्रश्न हैं, जटिल हैं. पर राह तो अति सरल और सहज प्रतीत होती है, उसका चुनाव करना बड़ा ही कठिन.

मन और इन्द्रियों को वश में कर आत्म साधना के द्वारा ही इस चुनाव को पूरा किया जा सके. आत्म साधना में लगने के मार्ग में प्रसश्त होना चाहिए...