Thursday, September 22, 2016

बाह्य से आत्म की ओर, क्षणभंगुरता से शाश्वति तक।।

बाह्य से आत्म की ओर, क्षणभंगुरता से शाश्वति तक 

फैलाव की चाहत का फल है बिखराव,

फिर समेटने के प्रयास से आता है सिमटाव।

ऐ मानव दे अपनी महत्वाकांक्षाओं को लगाम,

आत्मकेंद्रित ध्यान से पा ले सिद्धधाम।।

वही है शाश्वत सुखदाता पूर्ण विराम।।।


मनुष्य अपनी महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत सम्पूर्ण जगत को जीत लेना चाहता है. उसका ध्यान बाहरी वस्तुओं और भोगोप्भोगों के क्षणिक सुखों में ही रमता है. यह सब इन्द्रियों की लोलुपता का परिणाम है. अंततः सद्दर्शन प्राप्त कर सद्ज्ञान द्वारा ध्यान के उपकरण से सच्चारित्र कर मानव का मोक्ष के शाश्वत सुख की ओर अग्रसर होना ही सार्थक है.