Thursday, November 11, 2010

पितृत्व भावनाएं

भावनाएं क्या स्त्रीओं को ही होती हैं? क्या पुरुष भावनाशुन्य हैं? या फिर सामाजिक व सांस्कृतिक औपचारिकताओं के वशीभूत पुरुषों को भावनाएं दर्शाना अनुचित है? और अगर नहीं, तो सारा साहित्य तथा अन्य सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ क्यों पौरुषिक भावनाओं से रिक्त हैं? मैं यहाँ पर कोमल भावनाओं कि बात कर रहा हूँ, न कि रौद्र रूपों की. 

कई दिनों से बहुत भावुक हो रहा हूँ चाहे हर्षोल्लास हो, श्रृंगार हो, प्रेम हो या आर्त्र-रौद्र भाव हों. लेकिन उतना ही इन भावों को सुसुप्त रखना, उन्हें व्यक्त न करना या कर पाने का साहस न जुटा पाने से अंतर्मन कुछ उलझा एवं व्यथित है. और शायद ऐसे ही  समय मनुष्य कुछ लेखन कर पाता है. 

पैत्रिक भावनाएं कुछ ज्यादह ही जोर मार रहीं हैं और मैं फिर कभी कभी बच्चों की शैक्षिक कमजोरियों के लिए अपने को दोषी ठहराता हूँ. पुत्री तो कॉलेज चली ही गयी है और पुत्र भी कॉलेज जाने की याचिकाओं में लगा है. और अब वो बड़े हो जाने से अपनी अपनी जिंदगी जी रहे हैं, जिनमें माता-पिता के लिए जगह की कमी है. खासकर पुत्र अपनी निजी जिंदगी की इतनी कम बातें करता है की लगता है वो अभी से दूर हो गया हो. 

मुझमें शायद मोह अधिक होने से दुःख भी अधिक पाता हूँ. पितृत्व भावनाएं आजकल कुछ ज्यादह ही जोर मार रहीं हैं, और मेरे मन को झकझोर रहीं हैं. साहस व धैर्य से इनको शांत रखकर जीवन पथ पर निरंतर बढ़ने के कामना के साथ लगा हुआ हूँ. 

लगे रहो, पप्पू भाई..... 

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