आज फिर मन कुछ बेचैन है, या फिर कुछ खालीपन सा महसूस हो रहा है. क्यूँ है, कैसे है, क्योंकि होना नहीं चाहिए, पर है. क्या कहूँ, क्या न कहूँ.
ऐसा लोगों का मानना है कि मैं बहुत समझदार हूँ और उनको शिक्षा दे सकता हूँ. सही तो यह है कि मैं देता भी हूँ और मुझे भाषण देना, ज्ञान बांटना अच्छा भी लगता है, पर फिर क्यूँ स्वयं उन सभी सीखों अथवा ज्ञान पर चरितार्थ नहीं कर पाता हूँ. क्या कहूं, क्या न कहूं.
कब किसी बात को लेकर दिल में दर्द हो, या किसी की बात का कांटा सा लग जाए, ऐसा क्यों होता है? जबकि सारे जीवन से यही समझा है कि बुरा मानने में ही गलती है, किसी के बुरा कहने या करने से भी ज्यादह. फिर क्यूँ मैं स्वयं नहीं अपनाता हूँ, क्या कहूं, क्या न कहूं.
जीवन पथ पर बढ़ते बढ़ते न जाने कितने ही उतार और चढाव देखें हैं, फिर क्यूँ इन छोटी छोटी बातों से मन विचलित होता है, क्या कहूँ, क्या न कहूँ.
बस आज फिर अपने को पुनर्स्थापित करूँ और यही ठान लूँ कि साहस और धैर्य का साथ लेकर हर छोटी बड़ी बात को सहज स्वीकारूँ. यही कहूँ व यही करूँ.
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