बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि कुछ लिखूं पर कुछ समय का अभाव और कुछ मानसिक तनाव. सही कहें तो शायद संरचनात्मक कमी ही हो.
आज अभी थोडा स्वास्थ साथ नहीं दे रहा सो काम में मन नहीं लगा पा रहा हूँ, तो सोचा कुछ लेखन ही हो जाए.
आज कल अपनी महत्वाकांक्षाओं को कुछ लगाम दे रहा हूँ, पर मन विचलित हो जाता है, तब सोचता हूँ कि क्या मैं वही हूँ? या फिर शायद यही मनुष्य की प्रोढ़ता का परिणाम है?
हमारा अंतर्मन हमें कितना भटकाता है इसकी समझ शायद मेरे जैसा कोई मूढ़ ही कर सके, जो हर छोटो बड़ी बात पर इतना सोच विचार करता हो, जितना कि मैं. जब यह अंतर्मन मेरे विवेक पर काबू पा लेता है तब मेरी स्थिति किसी मदहोश व्यक्ति से कम नहीं होती. अंतर केवल इतना होता है कि वो नशा करके मदहोश होता है, और मैं बगैर नशे के.
शायद हमारे अंतर्मन को जीतना हमारी आत्मिक शक्ति ही कर सकती है, और उसे जगाने के लिए बहुतेक ध्यान ही सबसे कारगर उपाय जान पड़ता है. यह ध्यान भी शुक्ल हो तभी अंतर्मन संस्कारित सर्वहितकारी कार्य करने को प्रेरित करे, अन्यथा नहीं. यह शुक्ल ध्यान, धर्म के सिवाय कहीं और से नहीं आ सकता; सो शायद इसीलिए कहा है कि धर्म ध्यान करना आवश्यक है.